श्रम कानून और मोदी सरकार

                                               देश में सत्ता सँभालने के बाद जिस तरह से मोदी सरकार ने कानूनों को उद्योगपतियों के अनुकूल बनने की कोशिशों में लेबर लॉ में व्यापक संशोधन किये हैं अब उनका केंद्र और महाराष्ट्र में सरकार की सहयोगी शिवसेना के साथ भाजपा के भारतीय मज़दूर संघ भी खुलकर विरोध करने लगे हैं. पुणे में एक सभा में जिस तरह से इन संघों ने अपनी एकजुटता बनाये रखने के साथ ही सरकार पर दबाव डालने की बात कहना शुरू किया है उससे यही लगता है कि देश में विकास की रफ़्तार तेज़ करने के लिए सरकार कहीं न कहीं से लेबर लॉ को उद्योगपतियों के हितों के अनुकूल बनाने में लगी हुई है. छोटे कारखानों में कम संख्या में काम करने मज़दूर समूहों के लिए आने वाले समय में इससे नयी चुनौतियाँ सामने आने वाली हैं जिनका मुक़ाबला करने के लिए उनके पास अब कानून का सम्बल भी नहीं रहने वाला है जिससे उनकी समस्याएं और भी अधिक बढ़ने वाली हैं जिनका लम्बे समय में देश के विकास पर भी बुरा असर पड़ सकता है.
                                          इस मामले में सबसे पहले मज़दूर संघों को इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि सरकार ने आखिर किन परिस्थितियों में इन बदलावों के लिए सोचना शुरू किया है ? क्या यह सब करने के लिए सरकार ने अचानक ही फैसला लिया है या मज़दूर संघों की अनावश्यक राजनीति के चलते देश के कई भागों में उद्योगों पर पड़ रहे बुरे असर को रोकने के लिए ऐसा कदम उठाया गया है ? इस बात का जवाब खुद मज़दूरों के संघों के पास ही है क्योंकि उनके हितों में अभी तक चल रहे व्यापक कानूनों को ढाल बनाकर जिस तरह से उद्योगपतियों को दबाव में लाने का काम किया जाता रहा है उसने कहीं न कहीं से देश में अनावश्यक राजनीति को भी बढ़ावा दिया है. आज़ादी के बाद मज़दूरों के हितों को बचाये रखने के लिए ही इस तरह के मज़बूत कानून उनके पक्ष को ध्यान में रखकर बनाये गए थे पर कालांतर में उनके दुरुपयोग की बढ़ती घटनाओं ने भी कानूनों को कमज़ोर करने की सरकार को कदम उठाने को मज़बूर कर दिया है. क्या अब मज़दूर संघ अपनी इस गलती को मानते हुए सरकार के सामने कोई नए विकल्प रख पाने कि स्थिति में है यह उनके लिए विचारणीय है.
                                       यह भी सही है सरकार पर ही देश के औद्योगिक माहौल को सुधारने की ज़िम्मेदारी है पर माहौल सुधारने के लिए सरकार ने जिस तरह से एक झटके में ही इतने महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिए हैं उनका छोटे कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों पर बुरा असर ही पड़ने वाला है क्योंकि अभी तक मज़दूरों के हितों की लड़ाई अधिकांश बार मज़बूत कानून के चलते उनके हक़ में ही जाया करती थी. सरकार के पास आखिर वे कौन से विकल्प थे जिन पर वह विचार कर सकती थी या जिनके माध्यम से वह मज़दूर संघों की मनमानी को रोक सकती थी संभवतः उसने उन पर कोई विचार किये बिना उद्योगपतियों के हितों में त्वरित निर्णय ले लिए हैं. इन सुधारों को चरणबद्ध तरीके से भी उनके परिणामों को देखते हुए लागू किया जा सकता था जिससे मज़दूर संघों को भी अनावश्यक रूप से विवादों में बचने की सलाह और सन्देश भी मिल जाता और काफी हद तक उनके हित भी सुरक्षित रहते. सरकार के निर्णय चाहे जो भी हों पर उसको देश के समग्र विकास पर ध्यान देने के लिए कभी कड़े कदम भी उठाने पड़ते हैं पर देश के विकास और आम मज़दूरों के हितों से जुड़े इस मसले पर परिवर्तन आराम से भी किये जा सकते थे.      
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है…

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